सत्यार्थ प्रकाश (हिन्दी)
सत्यार्थ प्रकाश : क्या और क्यों
महर्षि दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में अपना कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश रचकर धार्मिक जगत में एक क्रांति कर दी । यह ग्रन्थ वैचारिक क्रान्ति का एक शंखनाद है । इस ग्रन्थ का जन साधारण पर और विचारशील दोनों प्रकार के लोगों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा । हिन्दी भाषा में प्रकाशित होनेवाले किसी दुसरे ग्रन्थ का एक शताब्दी से भी कम समय में इतना प्रसार नहीं हुआ जितना की इस ग्रन्थ का अर्धशताब्दी में प्रचार प्रसार हुआ । हिन्दी में छपा कोई अन्य ग्रन्थ एक शताब्दी के भीतर देश व विदेश की इतनी भाषाओँ में अनुदित नहीं हुआ जितनी भाषाओँ में इसका अनुवाद हो गया है। हिन्दी में तो कवियों ने इसका पद्यानुवाद भी कर दिया ।
सार्वभौमिक नित्य सत्य : इस ग्रन्थ का लेखक ईश्वर जीव प्रकृति इन तीन पदार्थों को अनादि मानता है ।ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव भी अनादि व नित्य हैं । सृष्टि नियमों को भी ग्रन्थ करता अनादि व नित्य तथा सार्वभौमिक मानता हिया । विज्ञान का भी यही मत है की सृष्टि नियम Laws of Nature अटल अटूट सार्वभौमिक हैं । इन नियमों का नियंता परमात्मा है । परमात्मा की सृष्टी नियम न तो बदलते हैं न टूटते हैं न घटते हिएँ न बढते हैं और न ही घिसते हैं इसलिए चमत्कार की बातें करना एक अन्धविश्वास है । किसी भी मत का व्यक्ति चमत्कार में आस्था रखता है तो यह अन्धविश्वास है।
सबसे पहला ग्रन्थ विश्व में इस युत में चमत्कारों को चुनौती देने वाला सबसे पहला ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश है। जिस मनीषी ने चमत्कारों को तर्क तुला पर तोलकर मत पंथों को अपनों व परायों को झाक्खोरा विश्व का वह पहला विचारक महर्षि दयानन्द सरस्वती है। सत्यार्थ प्रकाश के प्रणेता तत्ववेत्ता ऋषि दयानन्द को न तो पुराणों के चमत्कार मान्य हैं और न ही बाइबल व कुरान के । हनुमान के सूर्य को मुख में ले लिया यह भी सत्य नहीं है और हजरत ईसा ने रोगियों को चंगा कर दिया , मृतकों को जीवित कर दिया तथा हजरत मुहम्मद साहेब ने चाँद के दो टुकडे कर दिए – ये भी ऐतिहासिक तथ्य नहीं है । हजरत मुसा हों अथवा इब्राहीम सृष्टि नियम तोड़ने में कोई भी सक्षम नहीं हो सकता । दयानन्द जी के इस घोष का कड़ा विरोध हुआ । आर्य विद्वानों ने इस विषय मरण सैकड़ों शाश्त्रार्थ किये। पंडित लेखराम जी आर्य पथिक को इसी कारण बलिदान तक देना पड़ा । ख्वाजा हसन निजामी को सन १९२५ में एक आर्य विचारक प्रो हासानन्द ने चमत्कार दिखाने की चुनौती दी और कहा की में आपसे बढकर जादूगरी से चमत्कार दिखाऊंगा । ख्वाजा साहेब को आगे बढकर चमत्कार दिखाने का साहस ही नहीं हुआ । (दृष्टव्य : दैनिक तेज उर्दू दिनांक ३०।१०।१९२५ पृष्ठ ५ ) सत्य साईं बाबा भी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की चुनौती को स्वीकार करके कोई चमत्कार न दिखा सका।
अब तो विरोधी भी मन रहे हैं : ईश्वर की कृपा हुयी । ऋषी की पुण्य प्रताप व अनेक बलिदानों की फलस्वरूप अब विरोधी भी सत्यार्थ प्रकाश के प्रभाव को स्वीकार करके इस अन्धविश्वास से मुक्ति पा रहे हैं । हाँ ऐसे लोगों की अब भी कमी नहीं है जो सत्यार्थ प्रकाश से प्रकाश भी पा रहे हैं और इसे कोष भी रहे हैं । गुड का स्वाद भी लेते हैं और गन्ने को गालीयाँ भी देते हैं । पुराण बाइबिल व कुरान के ऐसे प्रसंगों की व्याख्याएं ही बदल गयीं हैं । अब रोगियों को चंगा करने का अर्थ मानसिक और आध्यात्मिक रोगों को दूर करना हो गया है । मृतकों को जिलाने का अर्थ नैतिक मृत्यु से बचाना किया जाने लगा है । यह व्याख्या कैसे सूझी? इन धर्म ग्रंथों के भाष्य व तफ्सीरें बदल गयीं हैं ।
सत्य असत्य की कसौटी : आज से साथ वर्ष पहले तक धर्म की सच्चाई की कसौटी चमत्कारों को माना जाता था । आज है कोई जो कुमारी मरियम से ईसा की उत्पत्ति को इसाई मत की सचाई का प्रबल प्रमाण मानता हो ? कौन है जो पुराणों की असंभव बातों को संभव व सत्य मानता हो ? कौन है जो बुराक पर सवार होकर पैगम्बर मुहम्मद की आसमानी यात्रा को सत्य मानता हो ? मुसलमानों के नेता सर सैयद अहमद खां ने बड़ी निर्भीकता से इन गप्पों को झुठलाया है ( दृष्टव्य “ हयाते जावेद लेखक मौलाना हाली – पानीपत )। यह सब सत्यार्थ प्रकाश का ही प्रभाव है ।
लोगों का ध्यान नहीं गया :सत्यार्थ प्रकाश ने भारतीय जनमानस में मातृभूमि का प्यार जगाया । जन्म भूमि व पूर्वजों के प्रति आस्था पैदा की । जातीय स्वाभिमान को पैदा किया । एकादश समुल्लास की अनुभुमिका ने भारतीयों की हीन भावना को भगाया। सत्यार्थ प्रकाश की इसी अनुभुमिका का प्रभाव था की गर्ज -२ कर आर्य लोग गाया करते थे :
कभी हम बुलन्द इकबाल थे तुम्हें याद हो कि न याद हो
हर फेन में रखते कमाल थे तुम्हें याद हो य न याद हो ।
सत्यार्थ प्रकाश ने देशवासियों को स्वराज्य का मंत्र दिया । इनके अतिरिक्त सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित कुछ वाक्यों व विचारों की मौलिकता व महत्व्य को विचारकों ने जाना व माना परन्तु उनका व्यापक प्रचार नहीं किया गया ।इन्हें हम संक्षेप में यहाँ देते हैं : ऋषी दयानन्द आधुनिक विश्व के प्रथम विचारक हैं जिन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में सबके लिए अनिवार्य व निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा का सिद्धांत रखा । उनके एक प्रमुख शिष्य स्वामी दर्शनानंद जी ने भारत में सबसे पहले निःशुल्क शिक्षा प्रणाली का प्रयोग किया ।
ऋषी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कृषक व श्रमिक आदि राजाओं के राजा हैं । कृषकों व श्रमिकों का समाज में सम्मान का स्थान है । इस युग में ऐसी घोषणा करने वाले पहले धर्म गुरु ऋषी दयानन्द ही थे ऋषी ने अपने सत्यार्थ प्रकाश के १३ वे समुल्लास में लिखा है की यदि कोई गोरा किसी काले को मार देता है तो भी पक्षपात करते हुए न्यायालय उसे दोषमुक्त करके छोड़ देता है । इसाई मत की समीक्षा करते हुए ऐसा लिखा गया है । यह महर्षि की निर्भीकता व सत्य वादिता एवं प्रखर देशभक्ति का एक प्रमाण है । बीसवीं शताब्दी में आरंभिक वर्षों में मद्रास कोलकाता व रावलपिंडी आदि नगरों में ऐसे घटनाएं घटती रहती थें । मरने वालों के लिए कोई बोलता ही नहीं था ।
प्रथम विश्व युद्ध तक गांधी जी भी अंग्रेज जाति की न्याय प्रियता में अडिग आस्था रखते हुए अंग्रेजी न्याय पालिका का गुणगान करते थे।
महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय महापुरुष हैं जिन्होंने विदेशी शाषकों की न्याय पालिका का खुलकर अपमान किया । ऋषी ने विदेशियों की लूट खसोट व देश की कंगाली पर तो इस ग्रन्थ में कई बार खून के आंसू बहाये हैं।
सत्यार्थ प्रकाश के तेरहवें समुल्लास में ही इसाई मत की समीक्षा करते हुए लिखा है कि तभी तो ये इसाई लोग दूसरों के धन पर ऐसे टूटते हैं जैसे प्यासा जल पर व भूखा अन्न पर । ऐसी निर्भीकता का हमारे देश के आधुनिक इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता ।
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भूमिका
ओ3म्
अथ सत्यार्थप्रकाशः
श्रीयुत् दयानन्दसरस्वतीस्वामिविरचितः
दयाया आनन्दो विलसति परस्स्वात्मविदितः सरस्वत्यस्यान्ते निवसति मुदा सत्यशरणा।
तदा ख्यातिर्यस्य प्रकटितगुणा राष्ट्रिपरमा स को दान्तः शान्तो विदितविदितो वेद्यविदितः।। 1।।
सत्यार्थ प्रकाशाय ग्रन्थस्तेनैव निर्मितः।
वेदादिसत्यशास्त्राणां प्रमाणैर्गुणसंयुतः।। 2।।
विशेषभागीह वृणोति यो हितं प्रियोऽत्र विद्यां सुकरोति तात्त्विकीम्।
अशेषदुःखात्तु विमुच्य विद्यया स मोक्षमाप्नोति कामकामुकः।। 3।।
न ततः फलमस्ति हितं विदुषो ह्यदिकं परमं सुलभन्नु पदम्।
लभते सुयतो भवतीह सुखी कपटि सुसुखी भविता न सदा।। 4।।
धर्मात्मा विजयी स शास्त्रशरणो विज्ञानविद्यावरोऽधर्मेणैव हतो विकारसहितोऽधर्मस्सुदुःखप्रदः।
येनासौ विधिवाक्यमानमननात् पाखण्डखण्डः कृतस्सत्यं यो विदधाति शास्त्रविहितन्धन्योऽस्तु तादृग्घि सः।। 5।।
सत्यार्थप्रकाश को दूसरी वार शुद्ध कर छपवाया है, क्योंकि जिस समय यह ग्रन्थ बनाया था, उस समय और उससे पूर्व संस्कृत भाषण करना, पठन-पाठन में संस्कृत ही बोलने का अभ्यास रहना और जन्मभूमि की भाषा गुजराती थी, इत्यादि कारणों से मुझ को इस भाषा का विशेष परिज्ञान न था। अब इसको अच्छे प्रकार भाषा के व्याकरणानुसार जानकर अभ्यास भी कर लिया है, इसलिए इस समय इसकी भाषा पूर्व से उत्तम हुई है। कहीं-कहीं शब्द वाक्य रचना का भेद हुआ है, वह करना उचित था, क्योंकि उसके भेद किए विना भाषा की परिपाटी सुधारनी कठिन थी, परन्तु अर्थ का भेद नहीं किया गया है, प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है। हाँ, जो प्रथम छपने में कहीं-कहीं भूल रही थी, वह-वह निकाल शोधकर ठीक कर दी गई है।
यह ग्रन्थ १४ समुल्लास, अर्थात् चौदह विभागों में रचित हुआ है। इसमें १० दश समुल्लास पूर्वार्द्ध और चार उत्तरार्द्ध में बने हैं, परन्तु अन्त्य के दो समुल्लास और पश्चात् स्वसिद्धान्त किसी कारण से प्रथम नहीं छप सके थे, अब वे भी छपवा दिए हैं।
१. प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओङ्काराऽऽदि नामों की व्याख्या।
२. द्वितीय समुल्लास में सन्तानों की शिक्षा।
३. तृतीय समुल्लास में ब्रह्मचर्य, पठन-पाठनव्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम और पढ़ने-पढ़ाने की रीति।
४. चतुर्थ समुल्लास में विवाह और गृहाश्रम का व्यवहार।
५. पञ्चम समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम की विधि।
६. छठे समुल्लास में राजधर्म।
७. सप्तम समुल्लास में वेदेश्वर विषय।
८. अष्टम समुल्लास में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय।
९. नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या।
१०. दशवें समुल्लास में आचार, अनाचार, भक्ष्याभक्ष्य विषय।
११. एकादश समुल्लास में आर्य्यावर्त्तीय मतमतान्तर का खण्डन-मण्डन विषय।
१२. द्वादश समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैनमत का विषय।
१३. त्रयोदश समुल्लास में ईसाई मत का विषय।
१४. चौदहवें सुल्लास में मुसलमानों के मत का विषय। और चौदह समुल्लासों के पश्चात् आर्यों के सनातन मत की विशेषतः व्याख्या लिखी है, जिसको मैं भी यथावत् मानता हूँ।
मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का प्रयोजन सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादित करना, सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता, जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना, सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत-वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त रहता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर देना, पश्चात् मनुष्य लोग स्वयं अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके, सदा आनन्द में रहैं। यद्यपि मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जाननेहारा है, तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़, असत्य पर झुक जाता है। इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा न किसी की हानि पर तात्पर्य है। किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें। क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।
इस ग्रन्थ में जो कहीं-कहीं भूल-चूक से अथवा शोधने तथा छापने में भूल-चूक रह जाय, उसको जानने जनाने पर, जैसा वह सत्य होगा, वैसा ही कर दिया जायगा। और जो कोई पक्षपात से अन्यथा शङ्का वा खण्डन-मण्डन करेगा, उस पर ध्यान न दिया जाएगा। हाँ, जो वह मनुष्यमात्र का हितैषी होकर कुछ जनावेगा, उसको सत्य-सत्य समझने पर, उसका मत संगृहीत होगा।
यदपि आजकाल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मतों में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त, अर्थात् जो-जो बातें सबके अनुकूल, सबमें सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक-दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्त्तें-वर्त्तावें, तो जगत् का पूर्ण हित होवे, क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर, अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डुबा दिया है। इनमें से जो कोई सार्वजनिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग विरोध करने में तत्पर होकर, अनेक प्रकार विघ्न करते हैं। परन्तु—
‘सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः’
[मुण्डक ३.१.६]
सर्वदा सत्य का विजय और असत्य का पराजय और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ़ निश्चय के आलम्ब से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी नहीं सत्यार्थप्रकाश करने से हटते। यह बड़ा दृढ़ निश्चय है कि—
“यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्”
—यह गीता का वचन है।
इसका अभिप्राय यह है कि जो-जो विद्या और धर्मप्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् अमृत के सदृश होते हैं। ऐसी बातों को चित्त में धर के मैंने इस ग्रन्थ को रचा है। श्रोता वा पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देख के, इस ग्रन्थ का सत्य-सत्य तात्पर्य जानकर यथेष्ट करें।
इसमें यह अभिप्राय रक्खा गया है कि जो-जो सब मतों में सत्य-सत्य बातें हैं, वे-वे सबमें अविरुद्ध होने से, उनका स्वीकार करके, जो-जो मतमतान्तरों में मिथ्या बातें हैं, उन-उनका खण्डन किया है। इसमें यह भी अभिप्राय रक्खा है कि सब मतमतान्तरों की गुप्त वा प्रगट बुरी बातों का प्रकाश कर, विद्वान्-अविद्वान् सब साधारण मनुष्यों के सामने रक्खा है, जिससे सबसे सबका विचार होकर, परस्पर प्रेमी हो के, एक मत होवें।
यद्यपि मैं आर्यावर्त्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूँ, तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तर की झूठी बातों का पक्षपात न कर, यथातथ्य प्रकाश करता हूँ, वैसे ही दूसरे देश वा मत-वालों के साथ वैसा वर्त्तता हूँ। जैसा स्वदेशवालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्त्तता हूँ, वैसा विदेशियों के साथ भी, तथा सब सज्जनों को भी वर्त्तना योग्य है। क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकाल के स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और बन्ध करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं भी होता, परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन से बहिः हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् होकर निर्बलों को दु;ख देते और मार भी डालते हैं, जब मनुष्य शरीर पाके वैसा ही कर्म करते हैं, तो वे मनुष्य स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं। और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहाता है। और जो स्वार्थवश होकर परहानि मात्र करता रहता है, वह पशुओं का बड़ा भाई है।
अब आर्य्यावर्त्त के विषय में विशेषकर ग्यारहवें समुल्लास तक लिखा है। इन समुल्लासों में जो कि सत्यमत प्रकाशित किया है, वह वेदोक्त होने से मुझको सर्वथा मन्तव्य और जो नवीन पुराण तन्त्रादि ग्रन्थोक्त बातों का खण्डन किया है, वे त्यक्तव्य हैं।
यदपि जो १२वें समुल्लास में चारवाक का मत [लिखा है वह] इस समय क्षीणाऽस्त-सा है, और यह चारवाक बौद्ध जैन से बहुत सम्बन्ध अनीश्वरवादादि में रखता है। यह चारवाक सबसे बड़ा नास्तिक है, उसकी चेष्टा का रोकना अवश्य है। क्योंकि जो मिथ्या बात न रोकी जाय, तो संसार में बहुत-से अनर्थ प्रवृत्त हो जायें। चारवाक का जो मत है वह बौद्ध और जैन का मत है, वह भी १२वें समुल्लास में संक्षेप से लिखा गया है। और बौद्धों और जैनियों का भी चारवाक के मत के साथ मेल है और कुछ थोड़ा-सा विरोध भी है। और जैन भी बहुत-से अंशों में चारवाक और बौद्धों के साथ मेल रखता है और थोड़ी-सी बातों में भेद है। इसलिए जैनों की भिन्न शाखा गिनी जाती है। वह भेद १२ बारहवें समुल्लास में लिख दिया है, यथायोग्य वहीं समझ लेना। जो इसका भिन्न है, सो बारहवें समुल्लास में दिखलाया है। बौद्धमत और जैनमत का विषय भी लिखा है।
उनमें से बौद्धों के दीपवंशादि प्राचीन ग्रन्थों में बौद्धमत संग्रह ‘सर्वदर्शन-संग्रह’ में दिखलाया है, उसमें से यहाँ लिखा है। और जैनियों के निम्नलिखित सिद्धान्तों के पुस्तक हैं, उनमें से—
४ (चार) मूल सूत्र जैसे—१. आवश्यक सूत्र, २. विशेष आवश्यक सूत्र, ३. दशवैकालिक सूत्र, और ४. पाक्षिक सूत्र।
११ (ग्यारह) अङ्ग जैसे—१. आचाराङ्ग सूत्र, २. सुयडाङ्ग सूत्र, ३. थाणाङ्ग सूत्र, ४. समवायाङ्ग सूत्र, ५. भगवती सूत्र, ६. ज्ञाताधर्मकथा सूत्र, ७. उपासकदशा सूत्र, ८. अन्तगड़दशा सूत्र, ९. अनुत्तरोववाई सूत्र, १०. विपाक सूत्र और ११. प्रश्नव्याकरण सूत्र।
१२ (बारह) उपाङ्ग जैसे—१. उपवाई सूत्र, २. रावप्पसेनी सूत्र, ३. जीवाभिगम सूत्र, ४. पन्नगणा सूत्र, ५. जम्बूद्वीपपन्नती सूत्र, ६. चन्दपन्नती सूत्र, ७. सूरियपन्नती सूत्र, ८. निरियावली सूत्र, ९. कप्पिया सूत्र, १०. कपबड़ीसया सूत्र, ११. पूप्पिया सूत्र और १२. पप्पचूलिया सूत्र।
५ (पाँच) कल्प सूत्र जैसे—१. उत्तराध्ययन सूत्र, २. निशीथ सूत्र, ३. कल्पसूत्र, ४. व्यवहार सूत्र और ५. जीतकल्प सूत्र।
६ (छह) छेद जैसे—१. महानिशीथबृहद्वाचना सूत्र, २. महानिशीथलघु-वाचना सूत्र, ३. मध्यमवाचना सूत्र, ४. पिण्डनिरुक्ती सूत्र, ५. औघनिरुक्ती सूत्र, ६. पर्य्यूषणा सूत्र।
१० (दश) पयन्ना सूत्र जैसे—१. चतुस्सरण सूत्र, २. पञ्चखाण सूत्र, ३. तदुलवैयालिक सूत्र, ४. भक्तिपरिज्ञान सूत्र, ५. महाप्रत्याख्यान सूत्र, ६. चन्दाविजय सूत्र, ७. गणीविजय सूत्र, ८. मरणसमाधि सूत्र, ९. देवेन्द्रस्तवन सूत्र, और १०. संसार सूत्र। तथा नन्दी सूत्र, अनुयोगोद्धार सूत्र भी प्रामाणिक मानते हैं।
५ पञ्चाङ्ग जैसे—१. पूर्व सब ग्रन्थों की टीका, २. निरुक्ती, ३. चरणी, ४. भाष्य, ये चार अवयव और ये सब मूल मिल के पञ्चाङ्ग कहाते हैं।
इनमें ढूंढिया अवयवों को नहीं मानते। और इनसे भिन्न भी अनेक ग्रन्थ हैं कि जिनको जैनी लोग मानते हैं। इनका विशेष मत पर विचार बारहवें समुल्लास में देख लीजिए।
जैनियों के ग्रन्थों में लाखों पुनरुक्त दोष हैं और इनमें यह भी स्वभाव है कि जो अपना ग्रन्थ दूसरे मत-वाले के हाथ में हो, वा छपा हो, तो कोई-कोई उस ग्रन्थ को अप्रमाण कहते हैं, यह बात उनकी मिथ्या है, क्योंकि जिसको कोई माने, कोई न माने, इससे वह ग्रन्थ जैनमत से बाहर नहीं हो सकता। हाँ, जिसको कोई न माने और न कभी किसी जैनी ने माना हो, तब तो अग्राह्य हो सकता है, परन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं है कि जिसको कोई भी जैनी न मानता हो। इसलिए जो जिस ग्रन्थ को मानता होगा, उस ग्रन्थस्थ विषयक खण्डन-मण्डन भी उसी के लिए समझा जाता है, परन्तु कितने ही ऐसे भी हैं कि उस ग्रन्थ को मानते-जानते हों, तो भी सभा वा संवाद में बदल जाते हैं। इसी हेतु से जैन लोग अपने ग्रन्थों को छिपा रखते हैं। दूसरे मतस्थ को न देते, न सुनाते और न पढ़ाते, इसलिए कि उनमें ऐसी-ऐसी असम्भव बातें भरी हैं, जिनका कोई भी उत्तर जैनियों में से नहीं दे सकता। झूठ बात का छोड़ देना ही उत्तर है।
१३वें समुल्लास में ईसाइयों का मत लिखा है। ये लोग बायबिल को अपना धर्मपुस्तक मानते हैं। इनका विशेष समाचार उसी तेरहवें समुल्लास में देखिए। और चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मतविषय में लिखा है। ये लोग कुरान को अपने मत का मूल पुस्तक मानते हैं। इनका भी विशेष व्यवहार १४वें समुल्लास में देखिए। और इसके आगे वैदिकमत के विषय में लिखा है।
जो कोई इस ग्रन्थ को कर्त्ता के तात्पर्य से विरुद्ध मनसा से देखेगा, उसको कुछ भी अभिप्राय विदित न होगा। क्योंकि वाक्यार्थबोध में चार कारण होते हैं—आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य। जब इन चारों बातों पर ध्यान देकर, जो पुरुष ग्रन्थ को देखता है, तब उसको ग्रन्थ का अभिप्राय यथायोग्य विदित होता है।
‘आकांक्षा’ किसी विषय पर वक्ता की और वाक्यस्थ पदों की आकांक्षा परस्पर होती है।
‘योग्यता’ वह कहाती है कि जिससे जो हो सके, जैसे जल से सींचना।
‘आसत्ति’ जिस पद के साथ जिसका सम्बन्ध हो, उसी के समीप उस पद को बोलना वा लिखना।
‘तात्पर्य’ जिसके लिए वक्ता ने शब्दोच्चारण वा लेख किया हो, उसी के साथ उस वचन वा लेख को युक्त करना।
बहुत-से हठी-दुराग्रही मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिप्राय से विरुद्ध कल्पना किया करते हैं, विशेष कर मत-वाले लोग, क्योंकि मत के आग्रह से उनकी बुद्धि अन्धकार में फसके नष्ट हो जाती है। इसलिए जैसा मैं पुराण, जैनियों के ग्रन्थ, बाइबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर, उनमें से गुणों का ग्रहण [और] दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्य जाति की उन्नति के लिए प्रयत्न करता हूँ, वैसा सबको करना योग्य है।
इन मतों के थोड़े-थोड़े ही दोष प्रकाशित किए हैं, जिनको देखकर मनुष्य लोग सत्याऽसत्य मत का निर्णय कर सकें और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने-कराने में समर्थ होवें। क्योंकि एक मनुष्य जाति में बहकाकर, विरुद्ध बुद्धि कराके, एक-दूसरे को शत्रु बना, लड़ा मारना विद्वानों के स्वभाव से बहिः है। यद्यपि इस ग्रन्थ को देखकर अविद्वान् लोग अन्यथा ही विचारेंगे, तथापि बुद्धिमान् लोग यथायोग्य इसका अभिप्राय समझेंगे, इसलिए मैं अपने परिश्रम को सफल समझता हूँ और अपना अभिप्राय सब सज्जनों के सामने धरता हूँ। इसको देख-दिखला के, मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करना मुझ वा सब महाशयों का मुख्य कर्त्तव्य कर्म है।
सर्वात्मा सर्वान्तर्यामी सच्चिदानन्द परमात्मा अपनी कृपा से इस आशय को विस्तृत और चिरस्थायी करे।
॥ अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वरशिरोमणिषु॥
॥ इति भूमिका॥
स्थान महाराणाजी का उदयपुर
भाद्रपद, शुक्लपक्ष, सम्वत् १९३९ (स्वामी) दयानन्द सरस्वती
प्रथम समुल्लास
॥ ओ३म्॥
प्रथम समुल्लास
॥ ओ३म्॥
अथ सत्यार्थप्रकाशः
ओ३म् शन्नो॑ मि॒त्रः शं वरु॑णः॒ शन्नो॑ भवत्वर्य॒मा।
शन्न॒ऽइन्द्रो॒ बृह॒स्पतिः॒ शन्नो॒ विष्णु॑रुरुक्र॒मः॥
नमो॒ ब्रह्म॑णे॒ नम॑स्ते वायो॒ त्वमे॒व प्र॒त्यक्षं॒ ब्रह्मा॑सि। त्वामे॒व प्र॒त्यक्षं॒ ब्रह्म॑ वदिष्यामि ऋ॒तं व॑दिष्यामि स॒त्यं व॑दिष्यामि तन्माम॑वतु॒ तद्व॒क्तार॑मवतु। अव॑तु माम्। अव॑तु व॒क्तार॑म्।
ओ३म् शान्ति॒श्शान्ति॒श्शान्तिः॑॥१॥
—[तुलना—तै॰आ॰प्रपा॰ ७। अनु॰ १]
अर्थ—(ओ३म्) जो यह ओङ्कार शब्द है, वह परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इसमें जो अ, उ और म् तीन अक्षर हैं वे मिलके एक ‘ओ३म्’ समुदाय हुआ है। इस एक से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं, जैसे—अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रों में स्पष्ट व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर ही के हैं।
प्रश्न—परमेश्वर से भिन्न अर्थों के वाचक विराट् आदि क्यों नहीं? ब्रह्माण्ड, पृथिव्यादि भूत, मनुष्य, विद्वान् और वैद्यकशास्त्र में शुण्ठ्यादि ओषधियों के भी ये नाम लिखे हैं।
उत्तर—हैं, परन्तु परमात्मा के भी हैं।
प्रश्न—केवल देवों का ग्रहण इन नामों से करते हो वा नहीं?
उत्तर—आपके ग्रहण करने में क्या प्रमाण है?
प्रश्न—देव सब प्रसिद्ध और वे उत्तम भी हैं, इससे मैं उनका ग्रहण करता हूँ।
उत्तर—क्या परमेश्वर अप्रसिद्ध और उससे कोई उत्तम भी है? पुनः ये नाम परमेश्वर के भी क्यों नहीं मानते? जब परमेश्वर अप्रसिद्ध और उसके तुल्य भी कोई नहीं, तो उससे उत्तम कोई क्योंकर हो सकेगा? इससे आपका यह कहना सत्य नहीं। क्योंकि आपके इस कहने में बहुत-से दोष भी आते हैं, जैसे—‘उपस्थितं परित्यज्याऽनुपस्थितं याचत इति बाधितन्यायः’ किसी ने किसी के लिए भोजन का पदार्थ रख के कहा कि आप भोजन कीजिए और वह जो उसको छोड़के अप्राप्त भोजन के लिए जहाँ-तहाँ भ्रमण करे, उसको बुद्धिमान् न जानना चाहिए, क्योंकि वह उपस्थित नाम समीप प्राप्त हुए पदार्थ को छोड़के अनुपस्थित अर्थात् अप्राप्त पदार्थ की प्राप्ति के लिए श्रम करता है। इसीसे जैसा वह पुरुष बुद्धिमान् नहीं, वैसा ही आपका कथन हुआ। क्योंकि आप उन विराट् आदि नामों के जो प्रसिद्ध प्रमाणसिद्ध परमेश्वर और ब्रह्माण्डादि उपस्थित अर्थों का परित्याग करके असम्भव और अनुपस्थित देवादि के ग्रहण में श्रम करते हैं, इसमें कोई भी प्रमाण वा युक्ति नहीं। जो आप ऐसा कहें कि ‘जहाँ जिसका प्रकरण है वहाँ उसी का ग्रहण करना योग्य है, जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘हे भृत्य! त्वं सैन्धवमानय’ अर्थात् तू सैन्धव को ले आ। तब उसको समय अर्थात् प्रकरण का विचार करना अवश्य है। क्योंकि सैन्धव नाम दो पदार्थों का है; एक घोड़े और दूसरा लवण का। जो गमन का समय हो तो घोड़े और भोजन का काल हो तो लवण को ले आना उचित है। और जो गमनसमय में लवण और भोजनसमय में घोड़े को ले आवे, तो उसका स्वामी उसपर क्रुद्ध होकर कहेगा कि तू निर्बुद्धि पुरुष है। गमनसमय में लवण और भोजनकाल में घोड़े के लाने का क्या प्रयोजन था? तू प्रकरणवित् नहीं है, नहीं तो जिस समय में जिसको लाना चाहिए था, उसी को लाता। जो तुझको प्रकरण का विचार करना आवश्यक था, वह तूने नहीं किया, इससे तू मूर्ख है, मेरे पास से चला जा।’ इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ जिसका ग्रहण करना उचित हो, वहाँ उसी अर्थ का ग्रहण करना चाहिये तो ऐसा ही हम और आप सब लोगों को मानना और करना भी चाहिए।
अथ मन्त्रार्थः
ओं खं ब्रह्म॑॥१॥ —यजुर्वेद अध्याय ४०। मन्त्र १७॥
देखिए, वेदों में ऐसे-ऐसे प्रकरणों में ‘ओम्’ आदि परमेश्वर के नाम हैं।
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत॥२॥
—छान्दोग्य उपनिषत्। [प्रपा॰ १। खण्ड १। मन्त्र १]
ओमित्येतदक्षरमिदꣳ सर्वं तस्योपव्याख्यानम्॥३॥
—माण्डूक्य[१]।
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदि